Tuesday 26 June 2012

दोस्तों के नाम


कुछ लोग होते हैं इतने ख़ास
दूर होकर भी रहते  हैं दिल के पास
उनमे से एक नाम तुम्हारा है
जिसे मैंने दोस्त कह पुकारा है!
कुछ लम्हें हमने जो साथ गुजारे
देखे हमनें  कितने टूटते तारे
शायद हम किसी भंवर में फंसे थे
पर कुछ भी हो साथ में तो हँसे थे!
अंदाज़ तुमने जो अपनाया था
हमें कब नहीं वह भाया था
तेरे ग़म में दिल मेरा भी रोया था
नहीं तो तेरी चुपी से मैंने क्या खोया था!
वो बात-बात पर तेरा किसी से उलझना
और पल में ही फिर सुलझना
यही तेरी सादगी जताती है
अतीत में भी ताज़गी लाती है!
जिंदगी से तूं कभी निराश होना
सफ़र के हर पराव पर नज़र रखना
किसी पराव पर तेरी मंजिल छुपी होगी
हर ख्वाहिश तेरी आस-पास ही बसी होगी
फुर्सत में कभी यार, इन पंक्तियों को निहार लेना
दिल अगर करे दोस्त कह पुकार लेना!
यह कविता मेरे दिल के सबसे करीब है, यह समर्पित है मेरे उन तमाम दोस्तों को जो मेरी ज़िन्दगी के सफ़र में कभी कभी मेरे साथ चले और यादों का यह अनमोल पिटारा सौंप गए!

Saturday 25 February 2012

आज फिर से उनकी याद आयी.....

वो आज याद आयी और खयालो में ही चली गयी
उस एक पल के यादो में भी मुझे रुला के चली गयी
किया था उम्मीद उनसे फूलो का मैंने
रहो में वो कांटे बिछा के चली गयी

सपनो की एक दुनिया बनाया था उनके साथ
उसी दुनिया को गम से भर के गयी
जलाया था दिया उनके इंतजार में
उसी से मेरी दुनिया जला गयी


भूल के भी न भूलने की दी थी कसम मुझे
आज वो मुझे भुला के चली गयी
अब तो ये प्यास न बुझता है किसी से
जो आग वो लगा के चली गयी

रघुवर झा

Saturday 24 December 2011

बस प्यार ही काफी

शादीशुदा जिंदगी में अक्सर दो मुश्किलें आती हैं एक तो रिश्ते में पहले जैसी गर्माहट नहीं रहती और दूसरा घर में अनबन होना आम बात हो जाती है. कई लोग अपनी शादीशुदा जिंदगी को सही तरह से चलाने के लिए कई तरह के काम करते हैं. कोई पूजा करवाता है तो कोई अपनी पत्नी का पुजारी बन जाता है, कोई पत्नी अपने अच्छे भले कॅरियर को छोड़कर पतिदेव की सेवा में लग जाती है. तमाम कर्मकाण्ड करने के बाद भी रिश्तों में अनबन जारी रहती है.
 लेकिन तमाम जुगाड़ लगाने के बाद भी लोग एक एक्स फैक्टर को भूल जाते हैं जिसके सहारे दुनिया के सारे रिश्ते चलते हैं और वह है प्यार. प्यार एक ऐसा अहसास है जो हर कमी को पूरा कर देता है. प्यार किसी बेसहारा को भी सहारा देने में सक्षम होता है. शादी के बाद अधिकतर पत्नियों का यही कहना होता है कि अगर उनके पति सिर्फ उनसे सच्चा प्यार ही करें तो उनके लिए उतना ही काफी है.

पतियों की भी यही इच्छा है कि उनकी पत्नी उनसे चन्द मिनट प्यार से बात करे ताकि वह दिन-भर की थकान और भूख प्यास को भूल जाएं.

प्यार एक ऐसा एक्स फैक्टर है जो आपकी शादीशुदा जिंदगी में ना सिर्फ नया रंग भर देगा बल्कि आपकी गाड़ी को सालों तक के लिए जवां कर देगा. प्यार का मतलब यहां बिस्तर में साथ सोना नहीं बल्कि वह छोटी छोटी बातें हैं जिनसे किसी को खुशी मिलती है जैसे छुट्टी वाले दिन पतिदेव का पत्नी के कामों में हाथ बंटाना, पति जब काम से घर लौटे तो पत्नी का उसे पानी देना और हालचाल पूछ्ना. वरन् पति द्वारा कभी-कभी सप्राइज गिफ्ट देना जैसे छोटे-छोटे कामों से भी आपकी जिंदगी में प्यार बना रहेगा.

रिश्तों में प्यार की अहमियत को नजरअंदाज मत करिए. हर रिश्ता प्यार की बुनियाद पर ही बना होता है जिसे जितना प्यार मिले वह उतना बढ़ता है.

Friday 9 December 2011

पीने का बहाना

हमें तो बहाना चाहिए पीने के लिए
एक और घूंट चाहिए जिंदगी जीने के लिए
गम में पीतें है हम, की दुनिया भुला दें
खुसी में पिता तो मजा ही निराली होती

हम पिने वाले ही जानते है  पिने का मजा
जिसने नहीं पिया शराब उसका जीना भी क्या जीना
पीने के बाद जो मैंने छू लिया तारो को
मन तो बस दीवाना सा हो गया है


शराब पीना श्वास्थ के लिए हानिकारक है
कभी तुम भी नशे में झूम के चल के देखना
अपने डगमगाते कदम का मजा ले के देखो
अपनों ने तो ज़माने भर का ठोकर दिया
पर ज़ख्मो से अब नहीं डरता अब ये परवाना

जब प्यार में पाया बेवफाई,
जिन्दगी मैंने जाम से पाई
जब से शुरू किया मैंने पीना
ये तो बन गया मेरे खुसी का अफशाना

पीना ही है मेरे सुख दुःख का साथी
जिसे मेरे सिवा मेरे दुनिया से कुछ लेना नहीं
शराब का प्याला मैंने हाथो में लिया
अपने गमो को भूलता चला गया

रघुवर झा

Sunday 20 November 2011

अब आप ही बताओ की मैं क्या लिखूं .....

अपनी कुछ जीत लिखूँ या हार लिखूँ..
या अपने दिल का सारा प्यार लिखूँ..

अपना कुछ ज़ाज़बात लिखूँ या अपने सपनो की सौगात लिखूँ..
खिलता सुरज को मैं आज लिखूँ या आपका चेहरा चाँद गुलाब लिखूँ..

वो डूबते सुरज को देखूँ या उगते फूल की सांस लिखूँ..
वो पल मे बीते कुछ साल लिखूँ या सादियो से लम्बी रात लिखूँ..

सागर सा गहरा हो जाऊं या अम्बर का विस्तार लिखूँ..
मै आपको अपने पास लिखूँ या आपके दूरी का ऐहसास लिखूँ..

वो पहली -पहली प्यास लिखूँ या आपका निश्छल प्यार लिखूँ..
छत पे चढ़ बारिश मेँ भीगूँ या मैं रोज की रातों की
आंखों की बरसात लिखूँ..
कुछ जीत लिखूँ या हार लिखूँ..या दिल का सारा प्यार लिखूँ..
                             अब आप ही बताओ की मैं क्या लिखूं .....
रघुवर झा

Tuesday 15 November 2011

ज़िन्दगी ऐसे गुज़रती जा रही है


ज़िन्दगी ऐसे गुज़रती जा रही है,
जैसे कोई रेल चलती जा रही है,

मन लगा है स्वयं से नज़रें चुराने,
रुक गया है प्लेटफोर्म पर पुराने,
तन का सिग्नल लाल करती जा रही है,

खेत नदिया ताल पोखर छूटते हैं,
पटरियों पर कितने पत्थर टूटते हैं,
काल की भी दाल गलती जा रही है,

इक भिखारी गीत गाने में लगा है,
एक मोटू लाल खाने में लगा है,
धूप है, बत्ती भी जलती जा रही है,

है थकन से चूर मंजिल पाएगी ही,
आएगी मंजिल, कभी तो आएगी ही,
मन में कोई आस पलती जा रही है,

ज़िन्दगी ऐसे गुज़रती जा रही है,
जैसे कोई रेल चलती जा रही है.

जीवन की आपाधापी में

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
(डा.  हरिवंश  राय  बच्चन )