लोगों को मौत के बारे में बातें करते सुना है, बड़ी शान से कहते है कि मौत जीवन का सत्य है। एक दिन तो वह जरूर आएगी। माना कि वह एक दिन आएगी जरूर। पर क्या जरूरी है कि हंसती-मुस्कराती जिंदगी में मौत की चर्चा करना। अगर मौत से इतना ही प्यार है तो फिर इतनी मारा-मारी क्यों? जब एक ना एक दिन सबको मौत ने अपने साथ ले ही जाना है, तो फिर क्यों ये महल, चौबारे, पैसे के पीछे अंधी दौड , यह सब मेरी समझ से बाहर की बात है। इतने विद्वान और योग्य व्यक्तियों की समझ में जरा सी बात नहीं आती है कि वह क्यों इंसान को परलोक सुधारने के उपदेश देते है, जबकि सबसे बडा सत्य है कि जिंदगी से अनमोल और कुछ नहीं है। आजकल यह भी देखा जाता है कि लोग जान-बूझ कर जीवन से खिलवाड कर रहे है। मौत को समय से पहले आने का निमंत्रण दे रहे है। कुछ सक्षम, प्रभावशाली व्यक्तियों का जीवन साधारण जनता से ज्यादा कीमती हो गया है, तभी तो वह अपने को सुरक्षा कर्मियों के घेरे में सुरक्षित समझ किसी के लिए कुछ भी कह देते है। उनके बयानों के फलस्वरूप जब धमाके होते है, तो मारे जाते है निर्दोष प्राणी। हमारा सिस्टम इतना चरमरा गया है कि जैसे खटारा गाडिया, जो कभी भी कही पर भी दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है और फिर एक खबर आती है फलां दुर्घटना या बम धमाकों में इतने मरे। इस बात की जानकारी बड़ी शान से वातानुकूलित कक्ष में बैठकर मीडिया के सामने दी जाती है कि देखो हमारा सिस्टम कितना आधुनिक हो गया है कि दुर्घटना के चंद मिनटों बाद ही प्रेस कांफ्रेंस आयोजित हो रही है। यह सिस्टम की खामी ही तो है कि नौसिखिए चालकों को किस प्रकार से इतने बेकसूर लोगों की जान से खेलने की जिम्मेदारी दी गई। दूसरी ओर हमारे सिस्टम की सबसे बडी खूबी यह है कि हमने फलां शहर के फलां मौहल्ले में इस संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार किया है। इसके बारे में पूरी मालूमात की जा रही है, पता लगाया जा रहा है कि यह कहां-कहां मौत बांटने आया था। जबकि दूसरी ओर बडे-बडे बम धमाकों के मुखय आरोपियों को शाही अंदाज में जीवन व्यतीत करने की सुविधाएं उपलब्ध करवाई जा रही है। मेरी समझ में यह भी नहीं आता है कि आखिर हमारे सिस्टम को चलाने वाले जीवन बचाने की कवायद में लगे है या फिर जीवन को खत्म करने के लिए मौत को बुलाने का प्रयास कर रहे है। एक ओर कृषि प्रधान देश में आम जनता रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रही है तो दूसरी ओर हमारे नेता अपने हित साधने के प्रयास में लगे है। हर नेता अपनी हैसियत के मुताबिक घोटाले करने में मस्त है, और आज का सच कहने में एक्सपर्ट मीडिया भी इनकी नीतियों को समझ में नाकाम साबित हो रही है या फिर मीडिया अपनी नैतिक जिम्मेदारियों से दूर भाग रही है और आम आदमी समय से पहले मौत की ओर जा रहा है। अजीब सा डर मन में बैठा रहता है कि घर से निकल तो जरूर रहे है, पर क्या वापस घर लौट पाएंगे? हर तरफ दहशत का माहौल बना हुआ है। सामाजिक व्यवस्थाओं को सुचारू ढंग से चलाने वाले अपनी नैतिक जिम्मेदारियों को कब ईमानदारी से निभाएगे? यह सवाल हमेशा मन को परेशान रखता है और इसी परेशानी में समय गुजरता जा रहा है? क्या कभी यह सब ठीक हो पाएगा या फिर ऐसे ही…….?
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