Thursday, 10 November 2011

ज़िन्दगी

हमारी ज़िन्दगी भी कितनी "अपूर्वानुमेय " होती है... है ना ? कब  किसके साथ क्या होने वाला है कुछ नहीं पता... अगर सच कहें तो हमें लगता है ज़िन्दगी का ये "अपूर्वानुमेय" होना इसे और भी खूबसूरत बना देता है... ज़िन्दगी के प्रति एक आकर्षण, एक रोमांच बना रहता है...हमें थोड़ा अलग ढंग से जीने के लिए प्रेरित करती है, अगर हमें अपने आने वाले कल के बारे में पता हो तो उसकी चिंता में शायद हम अपने आज को भी ठीक से ना जी पायें... वैसे भी आज ज़िन्दगी के लिये तमाम सुख सुविधाएं जुटाने की भागमभाग में हम अपनी ज़िन्दगी को जीना ही भूल गए हैं, जो हर गुज़रते पल के साथ कम होती जा रही है, हमसे दूर होती जा रही है... पैसों से खरीदे हुए ये बनावटी साज-ओ-सामान हमें सिर्फ़ चंद पलों का आराम दे सकते हैं पर दिल का सुकून नहीं... इसलिए भाग-दौड़ भरी इस ज़िन्दगी से आइये अपने लिये कुछ लम्हें चुरा लें... कुछ सुकून के पल जी लें... उनके साथ जो हमारे अपने हैं... आज हम यहाँ है कल पता नहीं कहाँ हों... आज जो लोग हमारे साथ हैं कल शायद वो साथ हों ना हों और हों भी तो शायद इतनी घनिष्टता हो ना हो... क्या पता... इसीलिए आइये ज़िन्दगी का हर कतरा जी भर के जी लें... ये ज़िन्दगी हमें बहुत कुछ देती है, रिश्ते-नाते, प्यार-दोस्ती, कुछ हँसी, कुछ आँसू, कुछ सुख और कुछ दुःख... कुल मिलाकर सही मायनों में हर किसी की ज़िन्दगी की यही जमा पूंजी है... ये सुख दुःख का ताना-बाना मिलकर ही हमारी ज़िन्दगी की चादर बुनते हैं, किसी एक के बिना दूसरे की एहमियत का शायद अंदाजा भी ना लग पाए... अभी हाल ही में हुए कुछ  हादसो ने हमें सोचने पे मजबूर कर दिया... सोचा कि इस हादसे ने ना जाने कितने लोगों कि ज़िन्दगी अस्त-व्यस्त कर दी, कितने लोगों को इस हादसे ने उनके अपनों से हमेशा हमेशा के लिये जुदा कर दिया और ना जाने कितने लोगों को ये हादसा कभी ना भर सकने वाले ज़ख्म दे गया... पर इस हादसे को बीते अभी चंद दिन ही हुए हैं... आग अभी पूरी तरह बुझी भी नहीं है और ये हादसा अखबारों और न्यूज़ चैनल्स कि सुर्खियों से गुज़रता हुआ अब सिर्फ़ एक छोटी ख़बर बन कर रह गया है... शायद यही ज़िन्दगी है... कभी ना रुकने वाली... वक़्त का हाथ थामे निरंतर आगे बढ़ती रहती है... जो ज़ख्म मिले वो समय के साथ भर जाते हैं और जो खुशियाँ मिलीं वो मीठी यादें बन कर हमेशा ज़हन में ज़िंदा रहती हैं...

लेखक नहीं हूँ तो शब्दों और लोगो के दिलो से खेलना आज भी नहीं आता...आज भी मैं एक देहाती ही हूँ..इतने तेज शहर में रहने भी मैं गाँव की हूँ...कुछ विचार मन में आये थे सो लिख दिये...

कभी ग़म की चिलकन, तो कभी सुख का मरहम
तो उदासी के साहिल पे हँसी की इक लहर
कभी कुछ उम्मीदें
तो कभी बहोत सारी नकामियां
कभी कुछ हादसे
तो कुछ हौसले
कभी ख़ुदा बनता इंसान
कभी खुद से हैरान परेशान
कभी बच्चों की हँसी में खिलखिलाती मासूमियत
कभी दादी-नानी के चेहरों की झुर्रियां
इन सब में है थोड़ी थोड़ी
इक टुकड़ा ज़िन्दगी

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